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Writer's pictureSuman Sharma

हे धरा !


धन्य है तू हे धरा !

धन्य यह धन धान्य है ।

धन्य धीरज,

धन्य वह हलधर,

जो रोपे धान है ।


गर्भ की गरिमा बढ़ी,

जब धान धानी लहलहाए ।

अंकुरित हो कहीं,

और कहीं वह जड़ जमाए ।

अन्न के रुप में फिर,

भूख फिर सबकी मिटाएं

और अक्षत बन कहीं,

पुनीत पल संग मुस्कुराए ।

है असंभव ऋण चुकाना,

धरती और किसान का ।

जिसके सहारे चल रही,

यह सांस उस अनाज का ।

एक मुट्ठी धान का प्रतिदान,

जिसने भी किया

वह सुदामा सा तरा,

ईश का वह प्रिय बना ।

- सुमन शर्मा

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