कहानी साड़ी की
पहली बार जब दुपट्टे की,
पहनी थी साड़ी,
नहीं समझ पाईं थी अर्थ,
खेल ही तो रही थी मैं अनाड़ी ।
कितनी लंबी हुआ करती थी,
वह साड़ी, जिसे दो बहनें
मिलकर भी तहाती,
तब भी एक सिरा छूट जाता,
जैसे हो माँ की जिम्मेदारी ।
बड़ी जो हुई, मेरे मन भाया
साड़ी ही नहीं, माँ का
ओढ़ा हुआ एक दुशाला
कितना जंचता था उनके
कानों में वह बड़ा सा बाला !
साड़ी, दुशाला और बाला,
जब होगा मेरा अपना ।
मैं भी माँ जैसे ही मुस्कुराउँगी,
जैसे मंदिर की मूरत, हर कोण
से सुंदर मैं गुनगुनाऊंगी।
साड़ी और बाला,
ओढा मैंने भी दुशाला।
फिर भी नहीं बनी बात,
कभी लगा, छोटे हैं केश।
माँ सी बनना
नहीं थी मेरी बिसात ।
कितना दौड़ना - भागना था,
जिंदगी में, अब साड़ी,
कुछ खास सरोकारों जैसे,
पूजा पाठ से जुड़ गए।
अब जब भी देखती , माँ की नज़रे,
मुझे साड़ी में, नज़र उतार लेती,
मैं सोचती, क्याअबदिखने लगी हूँ मैं माँ जैसी?
माँ जो अब नानी थी,
जिनके पास अनगिन
सुंदर साड़ियों की,
अनूठी कहानी थी ।
माँ जैसे देना चाहती थी
हर बार एक साड़ी,
हर तीज त्योहार धरोहर,
आशीष, प्यार ।
कहाँ समझ पाई थी,
समय पर, विरक्ति
और वह दुलार ।
माँ जब विदा हुई
अपने मायके से पाई
सुंदर सी एक साड़ी में,
छोड़ गई पीछे साड़ियों की
अनेकों कहानियाँ
नहीं संभव शब्दों में समेटना,
इसलिए रख ली,
एक साड़ी अपनी अलमारी में ।
माँ की साड़ी का एक-एक,
सुनहरा, रुपहला तार।
समर्पण व प्रेम की आँच में ढला,
जिम्मेदारी, जवाबदेही की वह कहानी,
कहता और सुनाता है।
कहानी साड़ी की साड़ी की नहीं,
बहू-बेटी माँ-बहन,
चाची, मौसी और बुआ की
कहानी बन जाता है।
- सुमन शर्मा
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