जन्म से अंत तक, नज़्म से मंच तक ।
हर साँस, हर स्वर के साथ,
संग संग होते हैं बहुतेरे ।
फिर भी हर एक साँस की,
यात्रा पूरी होती है अकेले ।
सीखना भी हर श्वास की
भाँति अपनी-अपनी यात्रा है,
समय की गणना क्यों?
यात्री के भूख सम,
ज्ञान की मात्रा है
उधार की न हो,
जब भूख और प्यास,
जुड़ा हो जब उसमे एहसास |
सीखे तब जीव सब,
जागे अवनीश तब ।
चलो, इस यात्रा को,
मात्रा बनाते हैं ।
शिव डमरू के संग,
नया राग रचाते हैं !
- सुमन शर्मा
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